Para.आज ना जाने क्यूँ फिर तेरी याद आ गयी

आज ना जाने क्यूँ फिर तेरी याद आ गयी, बे-वक़्त, बिन-बात के, बस यूँ ही, कमरे की धुंधली रोशनी में, बिस्तर पर लेटते हुए, कुछ भूली हुई रातें याद आ गयी. कुछ सोच कर हसी आ गयी, कुछ सोच कर रोना आ गया, याद आई वो रात जब फोन पर पहली बार इकरार हुआ था, वो रात जब मैं खुशी से पहली बार रोई थी और नम आँखों संग सो गयी थी. वो रात जब हमारी पहली लड़ाई हुई थी और रात तुम्हे मनाने में गुज़र गयी थी. वो रात जब हम किसी बात पर इतना हँसे थे की रो पड़े थे, वो रात जब तुमने पहली बार अपनी तस्वीर मुझे भेजी थी, वो रात जब तुमने कहा तहा की मेरे बिना तुम कुछ भी नहीं और मैने साथ निभाने का वादा किया था. फिर वो रात याद आई जब यूँ ही फोन पर तुमने बिना कुछ समझाए मुझे छोड़ दिया था. वो रात जब सवालों की गूँज मुझे पागल कर देती थी. वो रात जब खुद को शांत करने के लिए खुद को सज़ा देने की आदत लग गयी थी. वो रात जब फिर नम आँखों संग सोई थी. वो रात जब खुद के हाथ पकड़कर भ्रम के ख्वाब संग सोना सीखा था. वो रात जब खुद के सामने जी भर कर रोना सीखा था. आज भी उन रातों की थोड़ी हवा है मेरे कमरे में. कुछ उस वक़्त की खुश्बू, कुछ उस खुशी का नशा, कुछ उस ग़म के गवाह. बहुत खूबसूरत है रात आज की, इसलिए शायद तुम्हारा ख़याल फिर आ कर दिल के क़िस्सी कोने को छू गया.
Medhavi
18.10.15

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