जला रहे थे हम आज
जला रहे थे हम आज गर्म कोयले से खुद को, हंस दिए खुद पर ही, की अब दर्द का एहसास भी होता नहीं, रात चाँदनी में गिन रहे थे तारे इस उम्मीद में, कि किसी टूटे ख्वाब से ही मुलाक़ात हो जाए, हमारे वक़्त की जिसको कद्र ना थी, उस पर लुटा आए ज़िंदगी, अब वक़्त मेरा ही मेरी इज़्ज़त करता नहीं. अब कोई गुलाब भी देता है तो, काँटे ही ढूँढते हैं, कि खुश्बू और पंखुरियों की नर्मी से नाता कुछ ऐसे टूट गया, अपना ही घर लगता है पराया सा, घर से घर की डोर ना जाने कब हाथों से छूट गयी. मेधावी