|है कितनी तन्हाई, कभी भीड़ में देखो|
है कितनी तन्हाई, कभी भीड़ में देखो, टूटे ख्वाबों की परछाई, हंसते चेहरों में देखो, अंधेरोन की गहराई, उन खामोश नज़रों में देखो, ज़ाहिर करने की कठिनाई, बातूनी लोगों में देखो. जो है सामने, वो कितना सच है, जो है हासिल, वो कितना अपना है, जो है मुक़ाम्मल, वो कितना अधूरा है, जो है हक़ीक़त, वो कितना सपना है. इन सवालों से भागते हुए यह लोग सारे, कुछ दर्द छुपाते, कुछ खामोशी में चिल्लाते, इनमें ही खोया हुआ है उम्मीदों का पता मेरी, इनमें ही दफ़्न है कहीं हौसलों की उमर मेरी, मैं ढूँढ लूँ सब कुछ, पर खुद को कैसे तलाशुन, ढूँढने निकलती हूँ, पर दर्द को कैसे सराहूं, इसीलिए भीड़ में निकल जाती हूँ हर दिन, सवालों को साथ लिए गहराइयों को देखने के लिए, जिस हिम्मत से ख्वाब देखे तहे, उससे ही ढूँढने के लिए. Medhavi 20.04.17