भीड़ में खोई हुई एक परछाई

Wajood

भीड़ में खोई हुई एक परछाई सा लगता है अब वजूद मेरा,
ढूँढती है ज़िंदगी ज़र्रे ज़र्रे में जैसे सबूत मेरा,
जो खो गया है उसका इंतेज़ार है क्यूँ,
जो मिट गया उसकी ही पहचान है क्यूँ,
क्यूँ रातों की खामोशियों में गुम है शोर सा,
क्यूँ आईने में लगता है साया किसी और का,
क्यूँ राहें लगती हैं अजनबी,
क्यूँ उम्मीदें सब लगती हैं झूठी,
क्यूँ धूप में भी अंधेरोन का मंज़र सा है,
क्यूँ दुआओं में भी बुर्री यादों का असर सा है,
क्यूँ ज़िंदगी का चेहरा लगने लगा है अजनबी,
क्यूँ रूठने लगी है मुझसे मेरी तक़दीर ही,
वक़्त से टूट गया है लम्हा मेरा,
अधूरा सा है हर एक किस्सा मेरा,
एक राह सी है जिस पर कोई आता जाता नहीं,
साँसों का जैसे जिस्म से अब कोई नाता नहीं,
एक थमा हुआ पल और उसमें ठहरी हुई सी उम्मीद लिए,
हम खड़े हैं वहीं जहाँ चोर्र गये तुम और मूद्दके देखा भी नहीं.

Medhavi
28.01.17

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